रात
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रात
एक शब्द
जिसने छुपाये है
ना जाने
कितने ही अहसास
चाहे वो हो
ख़ुशी के
या फिर
चाहे हो
गमीं के 
कभी है
ये
हकदार वाहवाही
की
और कभी
है घिरी
बदनामी
से
क्योंकि
है तो ये
मात्र एक
शब्द
इस शब्द को
जीवंत तो
बनाता है
वो
जो गुजारता है
इसे
इंसानियत से
या के
हैवानियत से
इसी से तो
बनती
है ये
रात
ख़ुशी की
या
गम की
रात

दीपक खत्री ‘रौनक’

रात

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